रविवार, १० जून, २०१२

इन्कलाब



इन्कलाब

न थके हैं
न झूके है कहीं
न छूपे हैं
न रूके है कहीं

हैं बिख्ररे-बिख़रे
हैं उलझे-उलझे
फिर भी कभी ना
हम मुरझे-मुरझे

हैं सीने में कईं अरमां
जो आसमां से टकराते हैं
हैं मन में वहीं जसबां
जिसपर दिल धडकते हैं

वो आएगा जो इक दिन
जब वक्त भी हमारा होगा
ऐसा कुछ हम कर देंगे की
मिट्टी को भी ना़ज़ होगा

लांख आए तूफ़ां-आंधी
हम झूक नहीं सकते
रग-रग से कह रही है मिट्टी
हम मिट नहीं सकते

लांख आए धमकियां
हमें जमाने का डर नहीं
अरे हम से ही है जमाना
हम जमाने से कम नहीं

ये दहशतगर्दी ये अत्याचारी
अब हम ना टिकने देंगे
सरजमींपर अपने लहू से
इन्कलाब फिर लिख देंगे

वतन की राहोंपर
अब खूब लगाए नारा
जब-जब कटेगा सर
चमकेगा इक तारा

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