बुधवार, ६ नोव्हेंबर, २०१३

मंजिलें और राहें


मंजिल! आंखों में लाखों अरमान लिए खिंची हुई जिंदगी की एक तसवीर! उससे ही जुडी राहों पर जैसे चलते हैं अपने कदम.. और इन्ही कदमों से पीछे छोडे निशानों से बननी वाली रेखा.. कहीं उसी को कह बैठते हैं हम राहें! अपनी-अपनी राहें.. अपनी अपनी मंजिल..! अपना नजरयां   और वक्त की नजाकत से सजती-सँवरती है ये राहें। कभी मंजिलों की ओर तो कभी मंजिलों से ही दूर बनती-बिगडती हैं ये राहें। हम आदमी भी क्या अजीब है.. और उससे भी अजीब है अपनी जिंदगी..! 
यूं मानो तो -
कभी-कभी इन आंखों में 
तसवीर किसी की  खिंचा लेते हैं हम
कभी-कभी इन तसवीरों में
तकदीर अपनी बिंछा देते हैं हम
ऐसी ही तकदिरों से जुडी है ये मंजिलें। सपने से भी नाजूक तो अपने से भी बुलंद है ये मंजिलें! क्षितीज की भांति नए-नए आसमां चुमती है ये मंजिलें। तरह-तरह के हम और तरह-तरह की हैं - ये मंजिलें। कदम तो निकल पडे हैं इन मंजिलों की तलाश में.. शायद अपनी जिंदगी की तलाश में.. या शायद अपने ही तलाश में -
जाना ही है दूर कहीं
चलना ही है काम सही
मिले या ना मिले मंजिल
रूकना है ना और कहीं
तो जिंदगी में कोई एक तो जिंदगी में कोई एक मंजिल ही ना हो तो क्या है ?..फिर भी बनती हैं राहें। कहीं खुद की ही तलाश में क्यूं ना होदूर-दूर तक फैल जाती है ये राहें।  जब जन्में तो क्या ख़बर थी अपनी ? और क्या ख़बर थी जिंदगी की ? पर थे तो हम जिंदा ही। औरों ने ही बतलाया ये ही है जिंदगी हमारी.. ये ही है पहचान हमारी ! आज की स्थिती शायद कुछ बदली भी ना होपर चल रहे हैं हम और जी रहे हैं जिंदगी । कहाँ तक समझ पाते हैं हम जिंदगी को कहाँ तक समझ पाते हैं हम राहों को ?   पर चल रहे हैं हम अपने ही पथ पर.. बस मस्त होकर। पर ये किसी मंजिल से भी क्या कम है?? .. चलते-चलते पथ पर ही जो मिट जाए तो भी क्या गम है?...
मैं सोच रहा हूँ जिंदगी के बारें में..मैं सोच रहा हूँ मंजिलों के बारें में..मैं सोच रहा हूँ राहों के बारें में..।  बैठा हूँ उसी महाकाय सागर के किनारे सूक्ष्म से सूक्ष्म कणों का विशाल से विशाल पानी! सामने ही है इस पानी से अपना तम मिटाता हुआ रवि। ..फिर आता है चारों ओर से घिरता अंधेरा.. दिशाओं का फासला मिटाता हुआ अंधेरा।..अब तो किनारे पे रूकना मुश्किल है। मुझे मालूम है कि ये ढलता सूरज कल फिर चमक आएगाफिर भीअंधेरे से मन तो घबरा ही जाता है..। मैं सोच रहा हूँ जाऊं इस किनारे से दूर.. तभी दिखता है नभ में उडान भरता एक पंछी। 
हवा में फडफडाते पंखों से अंधियारे को खुद में समेटे वो बढ़ रहाहै उसी डूबते सूरज की ओर..। वो जारहा है 
हवाओं को चीर.. इस किनारे से दूर..। 
मैं मान रहा हूँ कि वो फिर लौट आएगा इसी किनारे और करेगा विश्राम इस रात के अंधेरे में ..कल के सुनहरें सपनों को आंखों में लिए उसी सूरज के इंतजार में। लेकिन मैं देख रहा हूं वो नन्ही जान यूं ही बढी जा रही है उस सुनहरे प्रकाश की ओर.. जा रही है दूर इस किनारों से.. और जा रही है दूर हमारी ऑंखों से भी । अब मैं ये समझ नहीं पा रहा हूं -  आखिर ये जा कहाँ रही है? आगे तो सिर्फ पानी ही पानी है.. न रूकने के लिए कोई जमीन न कोई किनारा। चारों ओर फैला है तो सिर्फ पानी ही पानी..। ये नन्हें पंख आखिर कब तक यूं ही फडफडाएंगे? क्या इस किनारे पर रहने वालों को क्या वहाँ भी कोई किनारा है? .. मैं बेचैन हो उसे पुकारना चाहता हूं । पर मेरी आवाज उस त्क कैसे पहुंच पाएगी? वो तो जा चूका है अब तक कोसों दूर..। वो भी खो गया उन खो रही दिशाओं में..।

      मैं फिर भी उसी किनारे पर ही हूँ और है ये चारों ओर से बढ़ता अँधेरा। सामने ही है मचलता पानी और उठतीं लहरें.. जो आ रही हैं किनारे की ओर युग-युग से। कईं शिलाओं से टकराकर बिखर रही हैं तो कईं किनारे पर फैली रेत में बूझ रही हैं। ये दूर-दूर तक दिखने वाला शांत-सा पानी किनारे पर ही आकर इतना क्यूँ है मचलता? इतना क्यूँ है उछलता?  क्या कहीं बेखौफ चलने वाली ये पवन, उसमें कोई नया गीत भरती होगी? अगर ऐसा है तो
      कहाँ से आती है ये पवन
           ये मचलती लहरें उठाने?
     सारा जीवन उछल आया
           किनारे पे ही लूट जाने!

या समंदर की कोई ऐसी तो बात नहीं है ‌-

      तू इस तरह छाँ जाती है दिल में
     कि तुझबीन साँस भी अधूरी लगती है
     फिर भी मैं जब साँस लेता हूँ
     तो दिल में यकायक बाढ़ सी आ जाती है
     ..और मैं बह जाता हूँ
     ..लहरों में बख‌र जाता हूँ
     जाता हूँ दूर कहीं
     जहाँ न कोई साहिल हो जाहिल हो..
     सिर्फ हो हवाओं के झोंके और बस ये पानी
     दूर-दूर बहुत दूर बस पानी और पानी
     मछलता ! उछलता !!

      हाँ सचमुच, कभी-कभी ये लहरें इतनी उछल आती है की ये जीवन जीवन नहीं रहता। इस शांत दिखतें गहरें पानी के नीचे अगर उठती है हलचल तो सचमुच मचलती हैं लहरें बिलकुल उधम मचाती हुई। पवनसंग गीत गाता पानी यकायक आसमाँ को छूने निकलता है। किनारे की रेत में विलीन होता पानी अपनी भयानक जिव्हा पसारे किनारे को ही निगलने दौडता है। और पूरा समंदर ही उमड पड़ता है इस धरा को अपनी विशाल बाहों में समेटने। अगर य समंदर ही किनारा भूल जाए हम किनारों पर बसने वाले करें भी तो क्या?


                                              आगे है..

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