रविवार, २७ मे, २०१२

एक गजल अपनी भी..

            गुजारीश

मैंने आंसुओं से अपने गुजारीश की है
आंख में ही बरसे यही फर्माईश की है


जख्मों को बहने दो कौन नहीं जख्म बिना
खून से ही सिंचने की अब साजीश की है

कौन कहे खुशी नहीं, फर्क ही क्या उसके बिना?
खूब हंसते रहने की अब आजमाईश की है

अब तो जिंदगानी गुजरेगी शिकायत बिना
मरकर जिंदा रहने की जो ख्वाहीश की है
                                      -अमर पवार

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